Monday, April 8, 2013

सरयूपारीण ब्राह्मण

सरयूपारीण ब्राह्मणों की व्यवस्था समझने से पहले ब्राह्मण शब्द और उसके व्यापक सन्दर्भ को समझना अत्यन्त आवश्यक हैं। सामाजिक रूढियों और उससे जन्मे विद्वेष से आज ब्राह्मणत्व और उसके आदर की बात जातिवादी दंभ से जोड़ दी जाती हैं। किंतु मूल रूपेण ब्राह्मण कौन हैं? क्या मंदिरों और मठो में बैठकर कर्मकांडों के बल पर जीवनोपर्जन करे वाले या काल, राष्ट्र और मानवता के उत्थान में सर्वथा कर्मशील युगपुरुष...जीवन की क्षण-भंगुरता के मर्म को समझकर घर घर में जाकर भिक्षां देहि की पुकार लगाने वाले जन या "ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत" के संदेश से उसी क्षण-भंगुरता का परिहास उडाते प्रबुद्ध चिंतनशील जीव ....जीवन के हर रूप को समझने के लिए ज्ञान के सागर ने डूबने के लिए दुबारा जन्म लेने तत्पर द्विज....

ब्राह्मणों की पौराणिक उत्पत्ति की गाथा की चर्चा हम आने वाले चिठ्ठों में करेंगे किंतु आज ब्राह्मणों से संबंधित कुछ विचार...ब्राह्मण शब्द को सोचते ही सर्वप्रथम हिन्दुत्व की रूढिवादी जातिप्रथा उभरकर आती हैं। किंतु भारत में जन्मी जातिप्रथा और विश्व में कई स्थानों जैसे मिस्र, यूनान में दास प्रथा, सभी मानव के विकास-क्रम श्रम की महती आवश्यकता के कारण उपजी (नेहरू , भारत एक खोज )। श्रम अधारित यह व्यवस्थाएं कब जन्माधारित हो गयीं पता नहीं। पर यह तो तय हैं कि आर्यों के सामाजिक विकास में सभी वर्णों का बराबर का योगदान रहा हैं, जिस प्रकार कोई भी चारपाई तीन पैरों के बल पर किसी काम की नहीं होती वैसे ही हमारी सामाजिक स्थिरता की चारपाई भी अपनी साफलता हेतु सभी वर्णों पर बराबर निर्भर हैं। सभी जीवों में पूर्ण ब्रह्म रूप देखने वाले "पूर्णमदः पूर्णमिदं" के प्रणेता वैदिक ब्राह्मण कब कालांतर में कर्मकांडी होकर मनुस्मृति के आधार शीशे घोलने लगे पता नहीं। (वैसे मैंने मनु-स्मृति नहीं पढ़ी हैं किंतु मन कभी यह मानने के लिए तैयार नहीं की कोई भी भद्र जीव दुसरे जीव के प्रति इतना असहिष्णु होगा)। "वसुधैव कुटुम्बकं" का प्रथम उद्घोषक ब्राह्मण मुख्य रूप से सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने वाली व्यवस्था में विश्वास नहीं रख सकता हैं। दलाई लामा ने अपनी पुस्तक "दा आर्ट ऑफ़ हैप्पीनेस" में कहा हैं कि कोई भी धर्म सामाजिक विघटन का समाधान हैं न कि उसके विघटन का आधार। अतः इस मानव वादी धर्म के रक्षक के रूप में डटे ब्राह्मण कदापि भी विघटनकारी व्यवस्था के समर्थक नही बने रह सकते।

यह ब्राह्मणों का निष्कपट, निर्पंथ, निर्मल, शांत प्रिय, आत्म-संयामी, सत्य-अन्वेषी एवं ज्ञान पिपासु स्वभाव ही रहा होगा जिसने डॉ. ऑलिवर वेन्डेल होल्म्स सीनियर को अपने समाज के संभ्रांत सदस्यों के लिए "बोस्टन ब्राह्मण" जैसे शब्दों के चयन को मजबूर किया होगा। ब्राह्मण सदैव ही सत्य एवं ज्ञान की रक्षा के लिए तत्पर रहें हैं - चाहे वो वैदिक मीमांसा हो, या रावण रचित गणित सूत्र या फिर चाणक्य द्वारा राष्ट्र निर्माण ...यहाँ तक कि ब्राह्मणों ने हिदुत्व के बहार निकलकर बौध , जैन , सिख और इस्लाम (हुसैनी ब्राह्मण के रूप में ) सत्य की रक्षा की हैं।

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